शनिवार, 1 जून 2013

जूनियर-सीनियर


 वकालत के पेशे में पहले से ऐसा रहा है कि आम तौर पर जूनियर सीनियर के कंजूसी की निंदा करते हैं और सीनियर जूनियर को कामचोर कहते हैं। जिस चैंबर में  जैसा अध्ययन सम्बन्धी और व्यावहारिक वातावरण रहता है उसी के अनुरूप आपसी गिले शिकवे भी होते हैं। यह बात उन इक्के दुक्के चैम्बरों के बारे में कह रहा हूँ जिनमें जूनियर को सीनियर से कुछ पारिश्रमिक भी मिल जाता है।  
मैंने बार काउन्सिल में registration  कराने के बाद वाराणसी के एक  जाने माने और दबंग फौजदारी के अधिवक्ता के साथ वकालत सीखना शुरू किया और केवल  दो तीन महीने उनके साथ रहा। मैं अंतर्मुखी और अध्ययनशील प्रवृत्ति का था, मुजरिमों, पुलिस अधिकारियों तथा न्यायलय के कर्मचारियों से बातचीत करने के  व्यावहारिक गुण मेरे अन्दर नहीं थे।  उनके कार्यालय में  दस बजे रात तक पुस्तकीय अध्ययन करता था। निस्संदेह, मैं सबसे  नालायक जूनियर था। फाइलें वही जूनियर छू सकता था जिसे वह कोई फाईल तैयार करने के लिए देते। उनके चैंबर की व्यवस्था थी कि प्रतिदिन आमदनी का आधा चाय नाश्ते में और लायक जूनियरों, मुंशियों को देने में खर्च करते थे और आधा अपने पास रखते थे। इस दृष्टि से मैं जिला  स्तर की वकालत के लिए उनके चैंबर  की व्यवस्था को आदर्श मानता हूँ। 
बाद में मैं हाईकोर्ट में एक सिविल साईड के कायस्थ अधिवक्ता के चैंबर में आ गया। वे खानदानी वकील  हैं। उनके चैंबर में जूनियर को पारिश्रमिक देने की व्यवस्था नहीं थी। केवल एक पुराने जूनियर को  एक विशेष प्रकार के मुक़दमे  की बहस कर लेने के बाद नाममात्र का  पारितोषिक देते थे। मुंशियों को यथायोग्य पारिश्रमिक देते थे। उनकी अनुपस्थिति में उनकी कंजूसी ही जूनियरों और मुंशियों के बीच  चर्चा का मुख्य विषय हुआ करती थी। लंच में सबको चाय पिलाते थे,  साथ में एक दो पकौड़ी भी। हम लोग हंसी करते थे कि " पकौड़ी एक ही प्लेट (दो रुपये की) आएगी,  खाने वाले चाहे जितने बढ़ जांयें"। किन्तु उनका चैंबर अध्ययनशील था। मैं उनके चैंबर में दस बजे रात तक बैठता था। मुंशीजी  मेरे सिर  के बराबर  ऊँचाई की फाइलें मेज पर रख देते, बिना किसी निर्देश के कि किस फाईल में कल क्या कार्यवाही होनी है। उनके चैंबर में फाइलें  पढ़ने और बहस करने की पूरी  छूट थी। अर्थात क़ानून सीखने-समझने का भरपूर अवसर था, किन्तु आर्थिक सहायता बिलकुल नहीं थी।
घरेलू एवं अध्ययन संबंधी  कारणों से १९८६  से १९९६ तक इलाहबाद और बनारस के बीच मेरी बहुत बार उठा पटक हुयी। अंतिम रूप से इलाहाबाद आने पर मैंने पुन: एक जाने माने संवैधानिक अधिवक्ता का साथ पकड़ा। उनके चैंबर में जूनियर को अगले दिन की फाइलें आबंटित कर दी जाती थी। पढने लिखने का पूरा अवसर था और पेट्रोल खर्च के मद में मासिक आधार पर कुछ  आर्थिक सहायता भी मिल जाती थी।  इस दृष्टि से हाईकोर्ट की वकालत के लिए उनके चैंबर को मैं आदर्श मानता हूँ। अन्यथा, हाईकोर्ट में भी साधारण अधिवक्ताओं में अधिकाँश ऐसे हैं जो जूनियर को पढ़ने के लिए फ़ाइल नहीं देते और कोई आर्थिक सहायता भी नहीं देते, जूनियर के मध्यम से वे केवल तारीख लेने का काम करते हैं।

जूनियर:
 जूनियर भी पढ़ने में रूचि  नहीं लेते , वे  चाहते हैं कि सीनियर उन्हें सारी  सुविधाएं  दे और सिर्फ हाजिरी लगाने के लिए पैसे भी दे और अपना मुवक्किल भी दे दे । उनकी निगाह मुक़दमे के गुण  दोष पर नहीं  बल्कि मुवक्किल पर रहती है।  
 शुरू में तो बड़ा वकील बनना और इमानदारी से खूब पैसा कमाना मेरा लक्ष्य था।  प्रोफेसरों की मुफ्तखोरी देखकर वकालत को मैं अध्यापन से श्रेष्ठ मानता था। किन्तु ईश्वरविधान ऐसा नहीं था। एक  नहीं, अनेक बार पूरी तरह से मटियामेट कर देने तक नियति  ने मेरे साथ खिलवाड़ किया और वकालत कराते हुए भी  इसके प्रति मुझे निरपेक्ष  कर दिया। इसलिए मेरे चैंबर में दिखावटी साज सज्जा और बैठकबाजी बिलकुल नहीं है। पुस्तकें उतनी ही खरीदता हूँ जिन्हें वास्तव में पढ़ सकूँ। फिर भी इतनी हो गयी हैं कि इनके रख रखाव में काफी कठिनाई होती  है और एक लाईब्रेरियन या पुस्ताकालय सहायक की आवश्यकता महसूस  होती है। जूनियर मित्र अव्वल तो पुस्तकें खोलने से परहेज करते हैं और कभी भूल से उठाकर देखते भी हैं तो उसे दुबारा यथास्थान नहीं रखते।
मरे पास स्टीरियो टाइप या रटे-रटाये शब्दों के आधार पर बहस करने वाले मुक़दमे नहीं आते। मेरे पास आने वाले मुक़दमे  अधिकाँशत: नए ढंग के और जटिल होते हैं। कहने के लिए बहुत से जूनियर हैं लेकिन सभी हाईकोर्ट में ही निरर्थक बकवास तक सीमित  हैं। मेरे पुस्तकालय/कार्यालय  में आकर कोई अध्ययन  नहीं करना चाहता।  जो आना  भी चाहता है उसे किसी दिन पुस्तक थमाकर कोई  प्रावधान खोजनेको  कह देता हूँ या फाईल पढ़वाने के लिए कुछ देर रोक लेता हूँ तो अगले दिन से वह आना बंद  कर देता है। कोई फ़ाइल पढ़ने के लिए देता हूँ तो लगता है उन्हें सजा मिल रही है। केवल इतना चाहते हैं कि यदि कल किसी मुक़दमे को टलवाना हो तो बता दूँ।  यदि नया मुकदमा तैयार हो रहा है तो जूनियर महोदय का भी उत्साह अधिक रहता है लेकिन तब तक दूर दूर रहते हैं जब तक फाईल पूरी तरह से तैयार न हो जाय। उसके बाद आशा करेंगे कि वकालतनामे पर उनका भी हस्ताक्षर हो जाय और फ़ीस में हिस्सा मिल जाय; हो सके तो मुवक्किल से मैं कह दूँ कि जूनियर महोदय  मुझसे अधिक योग्य हैं अब आगेसे आप इन्हीको  मुकदमा दीजियेगा।
एक जूनियर, जिन्हें मैंने विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी है और उनकी परिस्थितियों को देखते हुए मैं हर तरह से सहायता भी करना चाहता हूँ, सेल्स एजेंट की तरह से आर्डर लेने आते हैं। मेरे संपर्क में यदा-कदा  रहते हुए फौजदारी के तीन सीनियर्स के यहाँ काम कर चुके हैं  जिनके पास बड़ी  संख्या में स्टीरियो टाइप मुक़दमे रहते है।  आने के दस मिनट के अन्दर उन्हें जाने की जल्दी होने लगती है। तीन  दिन पहले  मैंने  उन्हें कुछ देर रोक लिया और बोलकर उनसे एक चिट्ठी लिखवाया। संबोधन में  उन्होंने   "प्रिय" एक लाईन  में लिखा और "महोदय" दूसरी में। इसी प्रकार पत्र के अंत में नीचे काफी  जगह रहने के बावजूद मेरा आधा नाम एक लाईन में लिखा आधा दूसरी में। चिट्ठी दुबारा लिखवानी पड़ी। अगले दिन से वे नहीं आये। आज किसी जिले में चले गए- मुवक्किल खोजने। शायद उनके समझसे उन्हें चिट्ठी लिखना आ गया है।
मैं तो चिट्ठी के शब्दों के माध्यम से उन्हें व्यावसायिक नैतिकता और कानून की तकनीकियाँ सिखाना चाहता था। लेकिन उन्हें कौन समझाए? चिट्ठी लिखना आसान नहीं है। अधिकांश मुकदमों में क़ानून की पेंचीदगी  चिट्ठियों में ही निहित होती है।